बसपा सुप्रीमों मायावती ने: गंवाया “सुपरहिट मौका”

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उत्तरप्रदेश की दलित राजनीति की कभी ‘ध्रुवतारा’ रही मायावती ने गुरुवार को ऐसा क़दम उठाया कि उनके समर्थक शायद सिर पकड़ कर सोच रहे होंगे—“बहनजी, अब हमें भरोसा किस पर करना है?” बहनजी ने वही किया, जो उनकी साख के लिए सबसे खतरनाक है: सपा और कांग्रेस पर हमला किया, और योगी सरकार की तारीफ़ में माला जड़ी। मतलब, सीधे-सीधे भाजपा की बी-टीम बनकर सियासी नाच शुरू।

महारैली में भीड़ देखकर लगता है कि दलित समाज अब भी बहनजी पर भरोसा करता है। पर सवाल यह है—भरोसा कब तक चलेगा, जब नेतृत्व दलित उत्पीड़न और संविधान पर हमला पर मौन साध ले और सत्ता को “धन्य” मानने लगे। कांशीराम के स्मारक और दलित सम्मान पर सवाल उठाना तो दूर, बहनजी ने स्मारक की टिकट की कमाई पर योगी सरकार को धन्यवाद तक दे डाला। दलित चेतना छोड़ो, टिकट की कमाई में आभार ज़रूरी हो गया।

सपा और कांग्रेस पर जमकर हमला बोला गया, लेकिन भाजपा के संवैधानिक उल्लंघन, दलित उत्पीड़न और न्यायपालिका पर हमले पर चुप्पी। जैसे नीतीश कुमार धर्मनिरपेक्ष होने का दावा कर उन ताकतों से हाथ मिलाते हैं, जिन्होंने राम मंदिर का सपना साकार किया, वैसे ही मायावती भी भाजपा के साथ ‘सौहार्दपूर्ण’ राजनीति कर रही हैं। मतलब, दलितों की पीड़ा पर राजनीति नहीं, सिर्फ फोटो और धन्यवाद।

और जब 2027 की सत्ता की बात आई, तो दावा किया गया कि बसपा फिर पूर्ण बहुमत से जीतेगी। साथ ही अपने ही भतीजे आकाश आनंद की तारीफ़ की, जिन्हें कभी पार्टी में किनारे किया गया था। यानी सियासी चालबाज़ी में याददाश्त उतनी ही लचीली होनी चाहिए जितनी टिकट कलेक्शन की मशीन।

कुल मिलाकर, मायावती ने अपनी साख को फिर से हासिल करने का मौका गंवा दिया। अब मतदाता सोचेंगे—अगर घूम-फिर कर भाजपा के आभारी रहना है, तो सीधे भाजपा को ही वोट क्यों न दें? और अगर इसका विरोध करना है, तो इंडिया गठबंधन ही आख़िरी आशा बचती है।

 

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